पहला है इस्कॉन और दूसरा है घनश्याम पांडे उर्फ स्वामीनारायण का निजी उद्योग।
जहाँ तक देखने को मिल रहा है, इस्कॉन पर किसी विशेष वर्ग का आधिपत्य नहीं है और यह विदेशी अथवा किसी को भी गाइडिंग सीट पर बैठा सकता है, बहुत हद तक ठीक भी हैं। इस्कॉन की स्थापना भले ही शील प्रभुपाद ने की थी, लेकिन यहाँ शील प्रभुपाद को नहीं बल्कि कृष्ण को ही पूजा जाता है। और हाँ राम को भी, “हरे कृष्णा, हरे रामा” यहाँ का मुख्य ध्येय है।
जबकि स्वामी नारायण नाम से चलने वाले, घनश्याम पांडे के निजी उद्योग में घनश्याम पांडे की ही पूजा होती है, ऋषि सुनक ने भी घनश्याम पांडे की आरती की थी किसी और देवी देवता की नहीं।
घनश्याम पांडे के मंदिर में मुख्य प्रतिमा घनश्याम पांडे की ही है और घनश्याम पांडे का मुख्य होल्ड गुजरात व गुजरातियों में है। इस समय जहाँ की सरकार देश पर हावी है।
संभवतः घनश्याम पांडे को गुजरात का राजनैतिक कनेक्शन और गुजरात की व्यापार लॉबी व एनआरआई लॉबी का पूरा समर्थन प्राप्त है। क्योंकि जी-20 में हमने ऋषि सुनक का स्टंट देखा है।
हिंदू होने के नाम पर ऋषि सुनक द्वारा घनश्याम पांडे का प्रचार किया गया और इसी तरह से अबूधाबी के मंदिर को हिंदू मंदिर कहकर बताया जा रहा है, जबकि वास्तव में वह घनश्याम पांडे का ही मंदिर है।
अब इस्कॉन की ओर आते हैं, इस्कॉन को सरकार का समर्थन तो नहीं दिख रहा है, उल्टे मेनका गांधी जैसे निजी स्वार्थ वाले राजनेताओं का इस्कॉन के प्रति विरोध दिख रहा है। अचानक से गौशाला की चिंता क्यों जागने लगी?
और इसी के साथ ही अचानक से किडनी फेल के नाम पर ठगी कर रहे, प्रेमानंद का धंधा? अर्थात् कृष्ण के नाम पर राधागिरी की छिनरई फैलाने का उभार। कहीं ना कहीं इस्कॉन के मार्केट को तोड़ने का षड्यंत्र लग रहा है?
तो क्या यह घनश्याम पांडे का गुजरात नेटवर्क एक्टिव हुआ है? मारवाड़ी-जैन सेठों की डीलिंग से प्रेमानंद यूँ ही नहीं उपजा है। विराट कोहली को बुलाकर पीआर कराया गया है। कोई वृहत्तर लाभ तो हैं हीं
विदेश में घनश्याम पांडे का धंधा, इस्कॉन के सामने थोड़ा सा मंदा है. क्योंकि इस्कॉन की पकड़ हिप्पी मूवमेंट से है। और ओशो व महेश योगी के काल से टिका हुआ है जबकि घनश्याम पांडे की कुल पहुँच गुज्जुओं से है।
ऐसे में हिंदू धर्म के धंधे में घनश्याम पांडे और इस्कॉन के टकराव में सरकार की भूमिका अहम होती जा रही है. क्या कल को इस्कॉन पर कोई दबाव बनेगा? क्योंकि इस्कॉन के पास वैसा कोई प्रचार मॉडल नहीं है।
इन दो के बीच की हिंदू मार्केट की कब्जेदारी को लेकर जो संघर्ष और चालबाजियाँ चल रही हैं. उसमें इस्कॉन फिर भी ठीक लगता है. क्योंकि वहाँ गुरु के नाम पर शील प्रभुपाद को कृष्ण से ऊँचा नहीं ना दिखाया जा रहा है।
जबकि यहाँ तो घनश्याम पांडे के आगे सारे देवता नतमस्तर दिखाए जाते हैं। ऐसे में घनश्याम पांडे के धंधे की हार ही हिंदू पहचान के लिए अच्छी रहेगी। लेकिन देखते हैं, गुजराती भारत किधर जाता है, क्योंकि हिंदूपन मिसगाइडेड मिसाइल है।
लेखक हरिशंकर साही