◆ भारत-श्रीलंका समझौते की फाइलें गायब हो गयी ब्रिटेन में।
◆ अडानी को श्रीलंका में बंदरगाह बनाने का ठेका मिल गया जिसमे न जाने क्यों अमेरिका करोड़ो की फंडिंग कर रहा है।
◆ फोटोग्राफी के बहाने इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट के नाम पर लक्ष्यद्वीप में भी अब अडानी को घुसेड़ने की तैयारी हो चुकी है?
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अब यहाँ कुछ प्रश्न उठ रहे है?
◆ क्या अमेरिका- रशिया शीत युद्ध के प्रभावों से भारत नावाकिफ है?
◆ क्या भारत परोक्ष रूप से अमेरिका को मदद दिए जाने का संकेत रसिया को नहीं दे रहा है?
◆ रसिया भारत का गुट निरपेक्ष होने के बावजूद जब सहयोगी रहा है फिर अमेरिका को मदद दिए जाने का सदेश देने की क्या आवश्यकता है?
◆ क्या चीन-रसिया के मैत्री संबन्ध के परिणाम स्वरूप अब चीन से भारत को होने वाले नुकसान नज़र नहीं आ रहे?
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संभावनाओं के आधार पर यदि देखा जाए तो ऑस्ट्रेलिया – रसिया के मध्य संबन्ध मधुर नहीं है। ऑस्ट्रेलिया ने अमेरिका के दबाव में रसिया से कई व्यापारिक संबंधो पर प्रतिबंध लगा रखा है। बावजूद मोदी सरकार आने के बाद ऑस्ट्रेलिया से लगातार कोयला भारत खरीद रहा है अडानी की खदान होने के कारण।
कहने को तो बेहद छोटे मुद्दे है पर आग लगाने की चिंगारी देने के लिए काफी है।
संभावना है कि मोदी सरकार के आने के बाद भारत का झुकाव पूंजीवादी विचारधारा को अभिप्राय मानने वाले अमेरिका के तरफ बढ़ चुका है जिसकी वजह से रूस और चीन के संबन्ध और गहरे होते जा रहे है।
गलवान में चीनी सेना का आगे बढ़ जाने पर, न कोई घुसा है न घुसने देंगे कह कर बात को घुमा लेना और चीन के बेसेस तैयार होने दे देना एक कायरता है।
संभावना है कि हमें इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है क्योंकि हम दूसरे के झगड़ो में उंगली करने का काम कर चुके है।
मालदीव एक छोटा सा उदाहरण है।