अभिषेक कुमार शर्मा
ये दोनों अखबारी खबरें एकसाथ मिलाकर पढ़ने से यह साफ पता चलता है कि सरकारी खजाना खाली होने की कगार पर पहुंच गया है।
सरकार रिज़र्व बैंक से पहले ही तीन बार उसके रिजर्व फंड से तमाम अर्थशास्त्रियों के मना करने के बावजूद भी अरबों-खरबों रुपए ले चुकी है। इसी से खिन्न होकर रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन और विरल आचार्य ने इस्तीफा दे दिया था। अब सरकार एक बार फिर रिजर्व बैंक से 45 हजार करोड़ रुपए की मांग कर रही है।
दूसरी ओर सरकार की चिकित्सा शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्था पर खर्च करने की क्षमता इतनी कम हो गई है कि वह अब झोलाछाप डॉक्टरों के आगे साष्टांग दंडवत की मुद्रा में आ गई है।
शायद इसीलिए सर्पदंश, पीलिया, हड्डी टूटने आदि का इलाज अब झोलाछाप डॉक्टरों के हवाले किया जा रहा है।
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भारत की लगातार गिरती आर्थिक स्थिति पर गंभीर चिंता व्यक्त करते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक ने समय-समय पर चेतावनी दी है लेकिन उस पर ध्यान देकर संभलने की कोशिश दिखाई नहीं देती।
देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने की बजाय धार्मिक उन्माद फैलाने को नए-नए हथकंडे अपनाए जा रहे हैं। देश के 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन देने के ढोल पीटे जा रहे हैं। वैश्विक भूख सूचकांक रिपोर्ट को झूठा बताया गया। अडाणी को लेकर आई हिंडेनबर्ग रिपोर्ट को भारत की अर्थव्यवस्था पर हमला कहा गया। ईज ऑफ डूइंग तथा जीडीपी के मानकों में हेराफेरी कर देश-दुनिया की आंखों में धूल झोंकने की कोशिश की गई। ऐसे आत्मघाती कदम संकट के समय शतुरमुर्ग की तरह रेत में सर घुसा लेना ही कहे जाएंगे।
जबकि कर्मचारियों की पेंशन का खात्मा, अग्निवीर योजना, विश्वविद्यालयों, शिक्षण संस्थाओं तथा अनुसंधान केंद्रों को अपने खर्चे स्वयं वहन करने तथा लोगों को दी जाती रही विभिन्न प्रकार की सहायता में कटौती जैसे कदमों से सरकार की खस्ताहाली सामने आ रही है।
देश जिस तेजी से ग्रीस और श्रीलंका जैसी आर्थिक तबाही की ओर बढ़ रहा है, उसी तीव्र गति से शहंशाह-ए-तबाही का विश्व में डंका बजने और भारत के विश्वगुरु बनने की हवाबाजी में वृद्धि के साथ-साथ देशवासियों को ‘सब कुछ चंगा सी’ की फीलिंग कराई जा रही है।