Whenever there is a threat to the RSS, the left-liberals and socialists come to save it RSS पर जब भी खतरा मंडराता है, लेफ्ट-लिबरल और सोशिलिस्ट उसे बचाने आ जाते हैं

RSS

मीडिया टुडे न्यूज। अब तक यही इतिहास रहा है कि जब भी RSS पर खतरा मंडराता है या उसका अस्तित्व खतरे में दिखता है, उसे बचाने इस देश के कुछ लिबरल-लेफ्ट और सोशलिस्ट सामने आ जाते हैं।

फिलहाल बात इतिहास की चर्चा से नहीं वर्तमान से शुरू करते हैं। सबसे पहले सरसरी तौर यह जायजा लेते हैं कि कैसे 2024 के Loksabha elections अभियान और उसके परिणामों ने RSS को खतरे में डाला और उस खतरे से निपटने की कार्यनीति के तौर पर मोहन भागवत ने एक ‘शानदार भाषण’ दिया। कैसे उस भाषण पर इस देश के लिबरल-लेफ्ट और सोशिलिस्ट बुद्धिजीवी, पत्रकार और कई सारे एक्टिविस्ट लहालोट हो रहे हैं।

कुछ एक्टिविस्ट क्रांतिकारियों की प्रतिक्रियाओं से ऐसा ध्वनित हो रहा है कि वे जनसंघर्षों और वोट से मोदी को सत्ता से भले ही बेदखल नहीं कर पाए, लेकिन लगता है, RSS उन्हें सत्ता से बेदखल जरूर कर देगा, आज नहीं तो कल।

कुछ Mohan Bhagwat के भाषण से इस कदर उत्साहित हैं कि यह ख्वाब देख रहे हैं कि मोदी को RSS हटाने वाला है और उनकी जगह गडकरी, नहीं तो राजनाथ लेने वाले हैं। कुछ तो उन्हें मार्गदर्शक मंडल में भी डाल चुके हैं।

कुछ इसे RSS और मोदी के बीच जंग के रूप में व्याख्यायित कर रहे हैं, उनकी बातों से लग रहा है कि वे इस जंग में फिलहाल RSS के साथ हैं, क्योंकि उन्हें लग रहा है कि मोहन भागवत ने अपने भाषण में मोदी और मोदी सरकार को निशाने पर लिया है।

कुछ को लग रहा है कि इस आपसी जंग में दोनों की बर्बादी है और इस बर्बादी से भाजपा विरोधियों को फायदा होगा। खैर RSS और भाजपा के बीच जंग की खबरें और उस पर लिबरल-लेफ्ट और सोशलिस्ट टाइप के लोगों का खुश और उत्साहित होना कोई नई बात नहीं है। यह सब अटल बिहारी वाजपेयी, उससे भी पहले जनसंघ के दौर से चल रहा है।

आइए देखते हैं कि 2024 के लोकसभा चुनाव अभियान में क्या हुआ, जिसके चलते RSS खतरा महसूस कर रहा है। 2024 के लोकसभा चुनाव अभियान की एक बड़ी विशेषता यह थी कि इस बार विपक्ष के कुछ दलों के निशाने पर BJP के साथ RSS भी था।

राहुल गांधी और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे तो खुलेआम भाजपा के साथ RSS को भी निशाना बना रहे थे। भले ही उन पर इंडिया गठबंधन के कुछ दलों का दबाव था कि वे उन्हें निशाने पर न लें, खासकर सावरकर को।

लालू यादव तो लगातार RSS को निशाने पर रखते ही हैं, वे BJP और RSS को एक दूसरे के पर्याय के रूप में देखते हैं। दोनों को संविधान, लोकतंत्र और धर्मनिपेक्षता के लिए खतरा मानते हैं। इस बार उन्होंने और ताकत के साथ RSS पर हमला बोला। इस बार अखिलेश यादव ने भी कई बार RSS पर हमला बोला, उसे संविधान और लोकतंत्र के लिए खतरनाक बताया।

डीएमके के स्टालिन और केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने इस बार भी पुरजोर तरीके से RSS को निशाने पर लिया। यहां तक बसपा सुप्रीमो मायावती ने भी इस बार के अपने भाषणों में भाजपा के साथ RSS को निशाने पर लिया। उन्होंने कई जगह साफ शब्दों में कहा कि RSS – BJP दलितों के दुश्मन हैं।

इस सबमें राहुल गांधी के संविधान खतरे में है, आरक्षण खतरे में और लोकतंत्र खतरे में है और यह खतरा सिर्फ भाजपा से नहीं RSS से भी है, बल्कि RSS से ज्यादा है, वाली बात दलित-आदिवासी और बहुजन वोटरों और बौद्धिक वर्ग को ज्यादा लगी। दलित-आदिवासियों और पिछड़े के बीच राहुल की गांधी की लोकप्रियता का यह सबसे बड़ा आधार बना।

RSS संविधान, आरक्षण और लोकतंत्र के खिलाफ है, यह बात दलित-बहुजन संगठन और बुद्धिजीवी लगातार कहते रहे हैं और इसे बचाने के लिए निरंतर आंदोलन और संघर्ष करते रहे हैं।

अगर बात विपक्ष के नेताओं तक सीमित होती तो RSS के लिए कोई खास चिंता की बात नहीं होती, लेकिन वह संविधान, आरक्षण और लोकतंत्र विरोधी है, यह बात दलितों, आदिवासियों और पिछड़े तबके के एक बड़े हिस्से तक पहुंच गई। सिर्फ पहुंच ही नहीं गई, बल्कि इन तबकों के दिल में धंस गई है।

उन्होंने संविधान, आरक्षण और लोकतंत्र बचाने के लिए वोट दिया। मुसलमान, ईसाई और सिख तो पहले ही RSS को अपने लिए सबसे बड़ा खतरा मानते रहे हैं, माने भी क्यों न हिंदू राष्ट्र में उनकी स्थिति दोयम दर्जे से अधिक न है, न हो सकती है।

सिखों को तो हिंदुत्ववादियों ने जोर-शोर से खालिस्तानी कहना शुरू कर दिया। इस बार के चुनाव में दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों के एक बड़े हिस्से ने संविधान, आरक्षण और लोकतंत्र बचाने के लिए RSS के प्रचारक प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ वोट किया। मुसलमानों, ईसाईयों और सिखों ने उनका पुरजोर साथ दिया। सिखों ने तो पंजाब में भाजपा को खाता भी नहीं खोलने दिया।

RSS को सबसे बड़ी चोट यूपी में लगी है, यूपी हिंदुत्व का हृदय स्थल है, उसकी रीढ़ है। अयोध्या का राममंदिर हिंदुत्व के विजय का कीर्ति स्तंभ है। यूपी में इंडिया गठबंधन, विशेषकर सपा ने उसके हृदय स्थल पर मर्मांतक चोट किया। उसकी रीढ़ को गहरे में चोटिल कर दिया। अयोध्या में भाजपा की हार से हिंदुत्वादियों को ऐसा लग रहा है, जैसे उनके सिर से उनका ताज उतार दिया गया हो।

यूपी में RSS-भाजपा की हार ने हिंदू राष्ट्र की जीत की अंतिम घोषणा को खतरे में डाल दिया है, 2025 में RSS के सौ वर्ष पूरे होने पर होने वाले जश्न को पहले से ही बहुत फीका कर दिया है, भविष्य की उसकी योजनाओं को खतरे में डाल दिया है। RSS इस हार पर तिलमिला उठा है। दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों को उसने पूरी तरह हिंदू बना लिया है, सदा-सदा के लिए उसका यह भ्रम टूटा है।

बात हिंदू पट्टी और दक्षिण भारत तक सीमित नहीं रही, मणिपुर में बहुसंख्य मैतेई लोगों को हिंदू बनाने की कोशिश में मैतेई और कुकी लोगों को लड़ाने और जनसंहार का जो खेल हिंदूवादी संगठनों और BJP ने खेला वह भी उलटा पड़ा। न केवल नागा-कुकी लोगों ने भाजपा को हराया, बल्कि मैतेई लोगों ने भी BJP को हरा दिया। BJP को मणिपुर की दोनों सीटें गंवानी पड़ीं।

लेह-लद्दाख में भी RSS-BJP का दांव उलट पड़ गया। लेह के बौद्धों को हिंदू फोल्ड में लाने की RSS की सफल होती कोशिश नाकामयाब हो गई। लेह-लद्दाख के हित के लिए बौद्ध और मुस्लिम एकजुट हो गए। लेह के बौद्धों को ( बहुसंख्यक) और कारगिल के मुसलमानों को लड़ाकर 2019 में लेह-लद्दाख की सीट जीतने वाली BJP और लेह-लद्दाख की सीट न केवल हार गई, बल्कि उसके प्रत्याशी को तीसरे स्थान पर लेह-लद्दाख वालों ने ढकेल दिया।

पेरियार के तमिलनाडु में सारे दावों के बाद भाजपा का खाता नहीं खुला, न ही चुनाव में गठबंधन के लिए कोई मजबूत सहयोगी मिला।

2024 के पूरे चुनावी अभियान और चुनाव परिणाम को देखें तो देशव्यापी स्तर RSS-भाजपा के हिंदू राष्ट्र के विजय अभियान को बड़ा धक्का लगा है, हिंदुत्व की समग्र आसन्न जीत अब दूर लग रही है।

इतना ही नहीं 2013 में नरेंद्र मोदी की मध्यस्थता में RSS और कार्पोरेट के बीच जो खुला गठजोड़ बना, जिस गठजोड़ ने उसको अकूत धन और मीडिया उपलब्ध कराया। उससे मिलने वाले फायदे अब RSS के लिए भारी पड़ रहे हैं। पूरे देश में यह मैसेज गया है कि वह कार्पोरेट हितों के लिए काम करता है, उसका स्वयंसेवक और उसके प्रचारक रहे चुके प्रधानमंत्री अडानी-अंबानी के लिए काम करते हैं। स्वयं RSS भी कई बार खुलेआम अडानी-अंबानी के समर्थन में खड़ा हो चुका है।

राहुल गांधी ने नरेंद्र मोदी के साथ हमेशा आरएसएस और अंबानी-अडानी को निशाने पर लिया। वे इन तीनों के गठजोड़ की ओर कभी इशारा करते हैं और कभी खुल कर बोलते हैं।

पिछले 10 वर्षों में नरेंद्र मोदी ने जिस तरह खुलकर भ्रष्टाचारी नेताओं और यौन-उत्पीड़कों एवं बलात्कारियों को संरक्षण दिया है, उससे RSS का यह पोल भी खुल गया है कि वह कोई ईमानदार लोगों का संगठन है, वह महिलाओं की गरिमा का सम्मान करता है। क्योंकि इन 10 वर्षों में RSS – BJP के बीच अंतर का कोई झीना तार भी नहीं था। दोनों एक ही हैं, यही सभी लोग समझते रहे हैं और यही सच भी है। इस स्थिति ने RSS की आदर्श और महानता की बातों की पोल खोलकर रख दिया है।

इस पूरे हालात में RSS न केवल मुसलमानों, ईसाईयों और सिखों को घातक भेड़िए की तरह दिख रहा है, वह दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों के बडे़ हिस्से को घातक भेड़िया ही लगने लगा है, संविधान, लोकतंत्र, आरक्षण, धर्मनिपेक्षता और इस देश की बहुधर्मी, बहुसांस्कृतिक, बहुभाषाई, विविध तरह के खान-पान और रहन-सहन को इस भेड़िए से ख़तरा है, ये लोग शिद्दत से महसूस करने लगे हैं।

ऐसे समय में RSS रूपी भेड़िया सियार की खाल ओढ़ कर सामने आया है, महानता और आदर्श की बातें करते हुए। अच्छाई-ईमानदारी की सीख देते हुए। प्रवचन करते हुए। जिसकी मुखर अभिव्यक्ति मोहन भागवत के भाषण में हुई।

इस भाषण पर लहालोट होकर लिबरल-लेफ्ट और सोशिलस्ट उन्हें ‘नायकत्व’ प्रदान कर रहे हैं। उनके और उनके भाषण की महानता के पक्ष में लेख लिख रहे हैं, मीडिया पर प्रशंसा के गीत गाये जा रहे हैं। उनके इस ‘महान भाषण’ पर बडे़ साक्षात्कार लिए जा रहे हैं। अंग्रेजी-हिंदी का कोई अखबार नहीं है, जिसमें इस भाषण की महानता और जरूरत पर लेख न लिखे गए हों।

उनके भाषण को ऐसे प्रस्तुत किया जा रहा है कि लग रहा है, अब सचमुच में RSS बदल गया है। Modi के घृणा अभियान, संविधान और लोकतंत्र विरोधी और तानाशाही भरे रवैए को खत्म करने के लिए जनसंघर्षों और विपक्ष की जरूरत नहीं बल्कि मोहन भागवत का भाषण ही काफी है। उनकी आदर्श भरी बातों की जरूत है।

जबकि सच यह है कि जिस RSS ने ही नरेंद्र मोदी जैसे आत्मग्रस्त, अहंकारी, फरेबी और आपराधिक मानसिकता वाले व्यक्ति को इस देश पर थोपा। 10 सालों तक उन्हें खाद-पानी दिया। उनके कृत्यों-कुकत्यों का जश्न मनाया।

यह वही RSS जिसने बाबरी मस्जिद को ध्वस्त करने का अभियान चलाया, उसे संविधान और कानून का उल्लंघन करते हुए ध्वस्त किया। हिंदू राष्ट्र के कीर्ति स्तंभ के रूप में राममंदिर बनाया। 2002 में गुजरात में मुसलामनों के कत्लेआम में नरेंद्र Modi का साथ दिया। कितने कर्म-कुकर्म गिनाए जाएं। अब उसी RSS पर लिबरल-लेफ्ट लहालोट हो रहे हैं। गुणगान कर रहे हैं। मोहन भागवत को नायक बना रहे हैं।

मणिपुर पर मोहन भागवत ने ‘वाह क्या कहा’, अप्रत्यक्ष तौर पर ही सही नरेंद्र मोदी और बीरेन सिंह को लताड़ा। जबकि सच यह है कि मणिपुर में सारी आग लगाई हुई, हिंदूवादी संगठनों की है। मैतेई लोगों को हिंदू बनाने और कुकी लोगों को देशद्रोही साबित करने के लिए वर्षों से मणिपुर में हिंदूवादी संगठन लगे हुए हैं, काम कर रहे हैं। इसमे बार-बार RSS की भूमिका की चर्चा होती रही है। जो आग लगाए वही कह रहे हैं, क्यों अब तक आग नहीं बुझी और इस पर लोग लहालोट हो रहे हैं। जिन्होंने दंगाई और आपराधिक लोगों को देश की शीर्ष पदों पर बैठाया।

वही लोग आज शुचिता, ईमानदारी और विनम्रता की बात कर रहे हैं।
भेड़िया से सियार बने मोहन भागवत की बातों के झांसे में आकर या जानबूझकर लिबरल-लेफ्ट और सोशलिस्ट एक बार फिर RSS को बचाने आ गये हैं।
यह कोई नहीं बात नहीं है। जब गोडसे ने गांधी की हत्या की तो देश में एक RSS के विरोध में एक ऐसा ज्वार आया था।

RSS बिल में छिप गया था। हमेशा हिंदुत्व की ओर झुके रहने वाले गृहमंत्री सरदार पटेल को भी उस पर प्रतिबंध लगाना पड़ा। यह एक ऐसा अवसर था, जिसमें गोडसेवादियों को वैचारिक तौर पर हमेशा-हमेशा के लिए खत्म किया जा सकता था, नहीं तो कम से कम उन्हें उनकी मौत मरने दिया जाता। लेकिन उन्हें नई जिंदगी, कांग्रेस विरोध के नाम पर सोशलिस्टों ने दी। विपक्षी एकता के नाम पर। इसके अगुवा लोहिया बने।

1967 में राज्यों में संयुक्त सरकारें जनसंघियों के साथ मिलकर बनाई गईं, संघियों को फिर से वैधता प्रदान की गई। उन्हें नया जीवन मिला। फिर आपातकाल विरोध के नाम पर संघियों को माई-बाप बना लिया गया। उनके साथ मिलकर केंद्र में सरकार बनाई गई। इसमें लिबरल, लेफ्ट और सोशलिस्ट सब शामिल थे। फिर राजीव गांधी के विरोध के नाम पर उनसे एकता कायम की गई और इन्हें ताकतवर होने का खूब मौका दिया गया।

मंडल युग में जब एक बार फिर RSS – BJP पीछे हटने को मजबूर हो रहा था, तो जार्ज फर्नांडीज और नीतीश ने उनका साथ दिया, फिर शरद यादव शामिल हुए। पहले जार्ज फर्नांडीज एनडीए के कोआर्डिनेटर बने, फिर शरद यादव। सब कुछ लोहियावाद की आड़ में। यूपी में मुलायम से गठबंधन तोड़कर कांशीराम ने भाजपा के सहयोग से मायावती को मुख्यमंत्री बनाया। RSS – BJP को एक और जीवनदान मिला।”

कांशीराम को इस जिम्मेदारी से बचाने के लिए कुछ कांशीराम समर्थक कहते हैं कि यह सब मायावाती की जि़द पर हुआ। इस बात के कोई मायने नहीं हैं। उस समय कांशीराम पूरी तरह स्वस्थ और सक्रिय थे। वही नेता थे।

अबकी बार राहुल, अखिलेश, तेजस्वी, स्टालिन आदि की जोड़ी ने दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों, मुसलमानों, ईसाईयों और सिखों के सहयोग से आरएसएस को एक बड़ी चुनौती दी, उसके सामने खतरा मंडराने लगा है। अब मोहन भागवत को नायकत्व प्रदान करने लिबरल-लेफ्ट और सोशलिस्ट सामने आए हैं। उन्हें जीवनदान देने के लिए।

यह बात मायने नहीं रखती की वे ऐसा जानबूझकर कर रहे हैं या अनजाने में। यह व्याख्या होती रहेगी। जो लोग मोहन भागवत के भाषण में कुछ भी सकारात्मक तलाश रहे हैं, संविधान और लोकतंत्र के पक्ष में किसी तरह मान रहे हैं, भारत की बहुसंख्यक जनता के हित में कुछ-कुछ देख रहे हैं। वे RSS पर मंडराते खतरे से उसको बचाने की कवायद में उसका साथ दे रहे हैं।

जो लोग यह सोच रहे हैं कि जैसा कि पहले भी कई बार सोचते रहे हैं कि RSS – BJP के संघर्ष का वे फायदा उठा और उसका इस्तेमाल उन्हें हराने के लिए कर रहे हैं, करेगें। अव्वल तो उनके बीच कोई ऐसा संघर्ष है ही नहीं, यह बहु-फन वाले सांप का एक फन बस है।

दूसरी बात उनके भीतर के किसी संघर्ष के आधार उन्हें हराने की सोच एक नपंसुक सोच है, जो बताती है कि भारतीय जन, जनसंघर्षों और वोटरों पर उन्हें भरोसा नहीं है। यह बात और भी हास्यास्पद है कि नरेंद्र मोदी की जगह नितीन गडकरी या कोई और प्रधानमंत्री बन जाएगा, तो भाजपा बदल जाएगी, वह कुछ और हो जाएगी।

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